Tuesday, August 11, 2020

श्रीजगन्नाथाष्टम्

सभी को जन्माष्टमी की मङ्गलकामनाओं सहित जगन्नाथस्तुति का एक विनीत प्रयास ... ଜୟ ଜଗନ୍ନାଥ 🙂🙏🏻

॥श्रीजगन्नाथाष्टकम्॥

संस्कृतम् | शिखरिणीछन्दः

अनुक्तो वोक्तो वा सकलसुखकारी सुरपतिः
निराकारो मूलो विमलजलवृत्ताय त्रिगुणः।
कलिङ्गे नीलाद्रौ जलधितटपुर्याम्बुजवरो
जगन्नाथो नाथो मम हृदयपङ्के विकसतु॥१॥

अभोक्ता वै भोक्ता सहजकरुणाब्धिः श्रुतिकरः
कृपापारावारो विबुधविधिधाता धृतिपतिः।
कुरुक्षेत्रे कालोद्गतिपरिचयः श्रीचरणयो-
र्जगन्नाथो नाथो मम नतिमु स्वीकृत्य ह्यवतु॥२॥

अमायामायाभ्यां सरलविलयो बिन्दुसदृशः
सदोपास्यो नित्यो निजवदनुपास्योऽपि वरदः।
विराडाकारो यः सुभगतनुपीताम्बरधरो
जगन्नाथो नाथो मम मतिविधानेऽवतरतु॥३॥

अकारो वर्णानां प्रमुदितविचारः शिवकरः
सुगीतोद्गाता वै सकलरसरूपः कविगुरुः।
मुनीनां व्यासो यः लिपिककुलहेरम्बसुगति-
र्जगन्नाथो नाथो मम वचनलोके निवसतु॥४॥

अशेषः शेषो वा प्रणवपरमात्मा प्रभुवरः
सहस्रारे संस्थोऽधिपतिजगदव्यक्तगदितः।
सदा प्रादुर्भावो नयनकृतिपालोऽस्तु सलयो
जगन्नाथो नाथो मम नयनदेशे विलसतु॥५॥

अनाद्योऽनन्त्यो यो भवविभववेत्तैकनिपुण-
श्चिदानन्दोऽरूपोऽवनिपतिहरीशोऽपरिमितः।
स्वधास्वाहाकारो विविधबहुयज्ञाग्निरुचिधो
जगन्नाथो नाथो मम महसि नित्यं विचरतु॥६॥

अमुक्तिर्मुक्तिर्वा विपुलबलशीलो जनहृदि
सुभद्राभ्राता यः सबलबलभद्रानुजमहान्।
विहारी श्रीक्षेत्रे खगगरुडयानो भवविभु-
र्जगन्नाथो नाथो मम हृदयगेहे विहरतु॥७॥

अजो योऽन्तर्यामी ऋतवचनकारी त्वतुलितो
चिराधारः श्रेयः स्वनमुखरितो वै सकलदः।
पदार्थो ब्रह्मण्यः शुभदविहितः काष्ठवपुषि
जगन्नाथो नाथो मम मनसि दीप्तिं विकिरतु॥८॥

कारागारे जीवने देहगेहे
बद्धो नित्यं कृष्णमेकं भजेऽहम्।
लीलाकारः श्रीजगन्नाथदेव
ज्ञानानन्दो देवदेव प्रसीद॥९॥

॥श्रीरुक्मिणीवल्लभो विजयते॥

निवेदकः - अर्यमनचेतसः

समर्पणनिमित्तम् - भारतविद्यासंस्कृतिसिद्ध्यर्थे

भाद्रपदकृष्णजन्माष्टमीतिथौ पूर्वाह्ने ०७:५३ वादने
मङ्गलवासरे ११-अगस्त-२०२० ईस्वीयतमे दिनाङ्के
भारतवर्षे ओडिशाप्रान्ते भुवनेश्वरनगरे खण्डगिर्युपक्षेत्रे

Monday, August 03, 2020

श्रीरामाष्टकम्

श्रीरामाष्टकम्

संस्कृतम् | मालिनीछन्दः

करधृतशरचापं मानवानामतुल्यं
हरणसकलपापं नीलकान्तिं सुवेशम्।
जनकसुतनयायाः हृत्तले शोभमानं
सुरनरभजनीयं रामचन्द्रं नमामि॥१॥

अमलकमलनेत्रं दण्डकारण्यपुण्यं
दशरथगृहसौख्यं वानराधीशमित्रम्।
सगुणमवनिपालं वेदविज्ञानमूलं
जनमणिमनुभूतं प्रेयलोकं भजेऽहम्॥२॥

धृतियुतभयमुक्तं सर्वसत्यप्रमाणं
वनरमणमभेदं मञ्जुलीलाकरं च।
भवमभवमगम्यं योगिनां शान्तिमन्त्रं
रघुवरमुदितं तं श्रीविहारं नमामि॥३॥

क्रमवचनसुरूपं क्षेमवाहं मनोज्ञं
मुनिरचितसुशब्दं नीतिवाक्यं स्वकारम्।
अगणितमविकारं कोसलेन्द्रं समर्थं
जनहृदि गतिमन्तं शीलमूर्तिं च वन्दे॥४॥

सचरमचरमेकं श्रीमुखं श्रीसुखं च
भुवनभवनसारं सर्वनैपुण्यतीर्थम्।
विमलमतिमशेषं क्लेशहर्तारमीशं
शुभचरितपुनीतं नाथनाथं भजेऽहम्॥५॥

सुरवरवरणीयं सर्ववर्यं सुवर्णं
करकरकरणीयं सर्वकारं सुकर्णम्।
बलमबलमदीयं सर्वपूष्णामधीशं
नरनरनमनीयं नम्यमेकं नमामि॥६॥

विगलितगतकालं वर्त्तमानं भविष्यं
गतिमतिषु विराजं राजराजाधिराजम्।
स्वनवदनविपाकं सृष्टिविद्याविधानं
त्रिगुणगुणनकारं धातुराशिं च वन्दे॥७॥

प्रखरहरमहेशं पञ्चभूताधिवासं
द्युतिकलितमहार्घं सप्तचक्रावधारम्।
अघदवदहनं तं योगदं योगजं च
वितरितमविचारं स्वप्रमेयं भजेऽहम्॥८॥

यदक्षरं भ्रष्टपदं कदाचित्
तत्क्षम्यतां देव कल्याणकारिन्।
भवतो गुणाः ये भवतस्तु वाणी
भवते हि शरणाय समर्पयामि॥९॥

निवेदकः - अर्यमनचेतसः

समर्पणनिमित्तम् - भारतविद्यासंस्कृतिसिद्ध्यर्थम्

पूर्वाह्ने ११:०९, सोमवासरे
०३ अगस्त २०२० ईस्वीयतमे दिनाङ्के
(श्रावणपौर्णिमातिथौ विश्वसंस्कृतदिवसे रक्षाबन्धनोत्सवे)
भारतवर्षे ओडिशाप्रान्ते भुवनेश्वरनगरे खण्डगिरिक्षेत्रे

Sunday, January 19, 2020

चलो तुम ...

काश्मीरी पण्डितों के पलायन की तीसवीं बरसी पर ...

बीते जो बरस तीस वो लाने को चलो तुम
आईन के असबाब बचाने को चलो तुम

तस्कीन-भरी मुल्क में होती थी सियासत
सच्चाई को कब्रों से जगाने को चलो तुम

बिस्मिल की निगाहें हों या अशफ़ाक़ का मरकज़
रस्ते जो तराशे वो सजाने को चलो तुम

ताबीर है वहमों की जो सत्ताओं ने गढ़े
इस बात को पुरज़ोर जताने को चलो तुम

जमहूर की ताक़त को मिटाया गया बरसों
जमहूर की ताक़त को पढ़ाने को चलो तुम

जो क़र्ज़ भगत-सों का चढ़ा सैंकड़ों सालों
लाज़िम है उसे अब तो चुकाने को चलो तुम

जाने की कभी बात भी उठनी ही नहीं है
जी अपना जो पुरखों से लगाने को चलो तुम

ज़िन्दान में बेदम थे हुकूमत के हाथ-पाँव
हरक़त है सो दीवार ढहाने को चलो तुम

लम्हों की ख़ताओं ने दीं सदियों की सज़ाएँ
इतिहास की सीखों को सिखाने को चलो तुम

जो अस्ल है मेरा उसी परचम के तीन रङ्ग
चौथे से हैं इस बात को गाने को चलो तुम

वादा है वही जो कि रहे सच की समाअत
सदक़ों की सदाक़त को निभाने को चलो तुम

~ क़ौस

Tuesday, November 05, 2019

ग़ज़ल

वो पैरहन बदलकर पैकर बदल रहे हैं
रातें बदल रही हैं, बिस्तर बदल रहे हैं

अरसे के' बाद घर पे मेहमान आ रहे हैं
तकिये बदल रहे हम चादर बदल रहे हैं

कॉलिज से' निकले' बच्चों की आँख में थकन है
ये नौ से' पाँच वाले दफ़्तर बदल रहे हैं

धोती-ओ'-कुर्ता' बदले तो पैण्ट-शर्ट आयीं
साड़ी बदल रही अब ज़ेवर बदल रहे हैं

हक़ की अदालतों में कर दर्ज़ जीत अपनी
बदली हैं' बीवियाँ, सो, शौहर बदल रहे हैं

इक आँख का सुकूँ भी है अब नहीं मयस्सर
भीतर बदल चुके थे, बाहर बदल रहे हैं

फिर साल से हुई है हरतालिका की' आमद
झुमके बदल रहे हैं, झूमर बदल रहे हैं

दिल्ली के' गोल मक्काँ, क़ानून भी नया कर
खिलजी बदल रहे हैं, जौहर बदल रहे हैं

दो गुट गले मिले हैं पुलिया की' दो तरफ़ के
ईंटें बदल रहे हैं, पत्थर बदल रहे हैं

कुछ तो नया चुभे है, ज्यों-ज्यों ये' दोस्तों के -
लश्कर बदल रहे हैं, नश्तर बदल रहे हैं

आज़ादियाँ मनाएँ, हों हमअदद हमारे
होने को' आये' अस्सी, सत्तर बदल रहे हैं

नदियाँ समुन्दरों को अब किस तरह निबाहें
राहें बदल रही हैं, रहबर बदल रहे हैं

यादें जिये बुढ़ापा, बचपन से' फिर जवानी
गट्ठर बदल रहे हैं, छप्पर बदल रहे हैं

अधजल रही हमेशा, पूरी भरी न रीती
हरदम रही छलकती, गागर बदल रहे हैं

बदली ग़ज़ल कि "चेतस" मक़्ता बदल रहा है
काशी बदल गयी है, मगहर बदल रहे हैं

~ अर्यमन चेतस

अपराह्न ०७:१७, मङ्गलवार, ०५ नवम्बर २०१९
भुवनेश्वर, ओडिशा

गौरैया के दाने

आज मैं भोर से बैठा हूँ। आँख खुलने के साथ ही आज एक अजीब सी बेचैनी थी। सामने के नीम पर बैठी गौरैया की अठखेलियाँ भी आज रिझा न सकीं। बीते कुछ महीनों से सोचते-सोचते अब इस बेचैनी का असर मन के साथ शरीर पर भी होने लगा है। सोचते रहने का भार अधिक भारी होता है। मैं उन लोगों को देखता हूँ जो बड़े मस्तमौला होते हैं, हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाते जाने वाले देवानन्द जैसे। पहले देखता हूँ, फिर उन्हें भी सोचता ही हूँ। मैं ऐसे बहुत से देवनन्दों को जानता हूँ, देवानन्दियों को भी। अब तक के छोटे से जीवन में ऐसे न मालूम कितने छोटे, बड़े और समवयस्क लोग मिले हैं जो परिचय की नई-नई नम भूमि पर ही अपनत्व के साथ अपनी रामकहानी छींटने लगते हैं। उनका यह अपनत्व एक सहज अधिकार से भी भरा होता है। धीरे-धीरे मैं समझ रहा हूँ कि मेरी सोच अब केवल मेरी ही सोच नहीं रह गई है। इसमें बहुत लोगों के अनुभव घुले हुए हैं। गौरैया के भी, जो अभी-अभी शायद अपने बच्चों को देखने वापस नीम में कहीं अन्दर की तरफ़ चली गयी है। इस बात का भान होते ही अचानक मेरी पीड़ा बढ़ रही है। क्योंकि, यह अनुभवों को सोचने और सोचने के अनुभव बनाने ही से तो बनी है।

अनुभव तटस्थता का स्थायी भाव लिए किसी रस की तरह होते हैं। पीड़ा भी तो ऐसा ही उदासीन शब्द है। अनुकूल हो तो सुख, प्रतिकूल हो तो दुःख। सोचना भी कुछ ऐसा ही है। गौरैया भी ऐसी ही है। अपने परिवार के दाने-पानी की खोज में ही लगी रहती है। कहीं भी चुग लेती है। किसी भी पेड़ पर बैठ लेती है। अभी-अभी नीम से उड़कर बाईं तरफ़ वाले खेजड़ी पर चली गयी है। लेकिन हम मनुष्य गौरैया की तरह कबीरवाणी को नहीं जी पाते हैं। हम तो दोस्ती भी करते हैं, बैर भी। हम नेकियाँ भी करते है, गुनाह भी। तभी तो हम में कबीर जैसे कम ही हुए हैं। लेकिन गौरैया तो किसी भी दूसरी गौरैया ही की तरह है। तभी इसके पास सोचने को इतना कम है। मेरे जीवन में मिलने वाले ये सब देवानन्द और देवानन्दियाँ भी ऐसी ही किसी गौरैया की तरह हैं। थोड़े अलग भी हैं, क्योंकि मनुष्य तो हैं, सोचते हैं। लेकिन ये मुझसे अलग हैं। इन्हें फ़िक्र के बाद उसे धुएँ में उड़ाना आता है। मैं धुएँ का भी ग़ुबार अपने चारों ओर बनने देता हूँ। लेकिन, मैं सीख रहा हूँ। इस अनुभव से मैं समझने लगा हूँ कि ज़्यादा लोगों की फ़िक्र के लिए धुआँ बनने से कुछ बचना चाहिए। वरना हम स्वयं ही धुआँ होने लगते हैं और सोचते-सोचते भूल जाते हैं गौरैया के लिए इतनी गर्मी में पानी भी रखना था और ख़ुद भी नाश्ता करना था।

सूरज काफ़ी ऊपर चढ़ आया है। नाश्ते का तो समय नहीं रहा। गौरैया के लिए दूसरे कोने में साँगरी के नीचे पानी रख रहा हूँ और वह मुझे ऐसा करते हुए कुछ टेढ़ी होकर झाँक कर देख रही है। मेरे वापस मुड़ते-न-मुड़ते पास आकर फुदकने लगी है। मैं फिर से सोचता हूँ कि शायद यह मुस्कुरा रही है। कहते हैं, अज्ञान में सुख है। मुझे कभी-कभी लगता है, कम इन्द्रियों का भी सुख है। शारीरिक जटिलता के साथ ही मानसिक जटिलता भी स्वयमेव कम हो जाती है। अब गौरैया को कौनसी पढ़ाई या नौकरी करनी है! न ही इसे गाड़ी-बँगला चाहिए। पेट भर ही खाती है। चोंच भर ही उठाती है। न इसे अपनी बौद्धिकता किसी के सामने स्थापित करनी है, न ही अधिक कामनाएँ हैं। इसीलिए यह इतनी निर्लिप्त रह पाती होगी। शास्त्रों ने भी शायद इसलिए भी जितेन्द्रिय होने को इतना महिमामण्डित किया है। इन्द्रियाँ कम तो नहीं कर सकते, उन पर विजय तो प्राप्त कर ही सकते हैं। ऐसे नहीं तो वैसे सही। कान को हाथ घुमा कर पकड़ने वाली बात है।

कहाँ से कहाँ चला आया हूँ। बात से बात निकलती आई है और अचानक महसूस हो रहा है कि चैत की सुबह से सीधे जेठ की दुपहरी में चला आया हूँ। धूप की आँच इतनी है कि मेरा खाना भी तैयार हो गया है। बिजली विभाग की कृपा भी ऐसे समय में ही बरसती है। सो, आजकल मैं बरामदे में ही बैठकर खा लेता हूँ। गौरैया भी समय की बड़ी पाबन्द है। हर दिन ऐन इसी वक़्त फिर पास आ जाती है। अब तो अनाज खरीदने वाले दिन लद चुके। फिर भी इसके लिए थोड़ा रखना होता है। इसे बाजरा पसन्द है। यहीं बरामदे में एक ओर छोटे डिब्बे में भरकर रक्खा रहता है। मैं घर से बाहर भी रहूँ तो पड़ोसी समय पर इसको दाना-पानी देते रहते हैं। मेरे पेड़ों को पानी भी दे देते हैं। अब तो शहरों में ऐसे पड़ोसी मिलना भी सौभाग्य है। वैसे, मैं ख़ुशनसीब हूँ कि मुझे लोग अच्छे ही मिलते हैं। दो-चार दुष्ट भी टकरा जाते हैं कभी-कभी। लेकिन अच्छे लोगों की तादाद ज़्यादा होती है। मुझे लगता है कि यदि आपके पास अच्छे लोग हैं तो आप कभी भी कमनसीब नहीं हो सकते। मैं जब भी थोड़ा भी परेशान होता हूँ तो मेरे लोग सहायता के लिए होते हैं। इसके लिए ईश्वर का धन्यवाद करना चाहिए।

धन्यवाद गौरैया का भी करना चाहिए। यह मेरे साथ बड़ी स्पर्धा करती हुई सी चुगती है। जितनी देर में मैं खाता हूँ उतनी देर में यह अपने कुटुम्ब भर को खिला आती है और किसी विजेता की तरह अकड़कर मुँडेर पर बैठ जाती है। ख़ैर, खाना खाकर अब मैं लेटा हुआ हूँ। बिजली विभाग की कृपा अभी भी बरस रही है। इनवर्टर कमबख़्त भी सप्ताह भर से ख़राब ही पड़ा है। मैकेनिक को हर दिन फ़ोन कर बुलाया है मगर उसने स्वयं को सर्वोत्कृष्ट भारतीय नागरिक सिद्ध करने की ठानी हुई है। सो, मैंने बरामदे ही में खस के टाट लगा दिए हैं। इन पर पानी छिड़क देने से आराम रहता है। हाल ही में एक मित्र ने मेरी रुचियाँ देखते हुए "कारवाँ" तोहफ़े में दिया है। रेडियो जैसे डिब्बे में गीतमाला बज रही है। मैं गाने सुनते-सुनते सो गया हूँ। कभी-कभी तो लगने लगता है कि अमीन सयानी और गौरैया ही आवाज़ बदल-बदल कर सब गाते हैं। कितना अच्छा होता कि दुनिया में बस एक यह गौरैया होती और अमीन साहब होते। इसकी हर हरक़त पर उनके पास किसी गाने की प्यारी सी तरतीब होती। दोनों की चुहल भरी जुगलबन्दी चलती रहती।

मैं आनन्दित हो ही रहा हूँ कि गौरैया ने अपने सहेले-सहेलियों के साथ अपनी शाम की धमाचौकड़ी से मेरी नींद तोड़ दी है। मैं खीझ भरा तो उठा हूँ मगर आज शायद पुरवा बह रही है, सो बुझापन ख़ुद ही ग़ायब हो गया है। मेरे पेड़-पौधे खिले-खिले से दिख रहे हैं। पानी भरने का समय भी हो रहा है। पानी का नियमित संग्रह आवश्यक है। इस विषय में मैं स्वयं को गौरैया से बेहतर मान लेता हूँ। मेरे कभी भी ऐसा सोचने पर इसे पता चल जाता है और यह गर्दन फेर कर उड़ जाती है। अभी फिर उड़ गई है। मैं अकेले ही ठठाकर हँस रहा हूँ। साँझ ढलने को है। झुटपुटे में दाहिनी ओर कनेर और गुलमोहर की गोद में झिलमिलाते जुगनू ऊपर आसमान में चमकते हुए दूज के चाँद से ज़्यादा ख़ूबसूरत नज़ारा दे रहे हैं, मन में उल्लास भर रहे हैं कि चढ़ती रात के साथ जब मैं और सोचूँ तो बस सोचूँ ही नहीं, और जब नींद लूँ तब तो बिल्कुल भी सोचूँ ही नहीं।

रात होते-न-होते मैकेनिक आ गया है। इनवर्टर ठीक होते-न-होते बिजली विभाग ने कृपा बरसने के तरीक़े में भी सुधार कर लिया है। मैंने कुछ निर्णय कर लिए हैं। अब क्रियान्वयन का समय है। रात का खाना बाहर खाकर, चैन से सोकर उठा हूँ। नया दिन हो गया है। ताज़ा साँसे हैं। सोचना तो मेरी ताकत है, मेरी खुराक है। जारी रहेगा, मगर क्रियाशीलता के साथ। गौरैया की चहचहाहट भी आज नवेली है। 🙂

~ अर्यमन चेतस

०१ जून २०१९

Thursday, October 31, 2019

मेड चालीसा

*॥ अथ श्रीमेडेश्वरीचालीसास्तुतिः ॥*

दोहा:

नेति नेति कहि बेद भी जिसे न पावैं खोज।
हौं उसकी महिमा कहौं जीवनभर हर रोज॥१॥

पदपङ्कज तुम्हरे पड़ैं हमरे घर महुँ आन।
निजसेवक के हाल पर दीजै तो कछु ध्यान॥२॥

चौपाई:

जयतु जयतु जय मेड भवानी।
तव बतियाँ नहिं जायँ बखानी॥१॥

उमा रमा या हों ब्रह्माणी।
तीनों ही तुममें कल्याणी॥२॥

तुम ही अन्नपूरणा माता।
तव आसिष घरसागर-त्राता॥३॥

गाँधीजी की ऐनक तुमसे।
घर-भर की सब रौनक तुमसे॥४॥

मेड-हण्ट का काज बड़ेरा।
गली-गली में तुमको हेरा॥५॥

सौ जनमों के पुण्य फलाए।
तबहिं मेड का सुख जन पाए॥६॥

जिस पल से तुम घर में आओ।
सब बाधाएँ तुरत नसाओ॥७॥

पहले हफ़्ते चकमक-चकमक।
दूजे से सब अकमक-बकमक॥८॥

छुट्टी का है सीन निराला।
केस आत्मनिर्भरता वाला॥९॥

तुम जब चाहो आओ-जाओ।
मेड-यूनियन से धमकाओ॥१०॥

नॉस्टेल्जिया तिहारा भाई।
मेस की सब्जी याद दिलाई॥११॥

नमक और चीनी की बैरी।
चाय तिहारी सखी घनेरी॥१२॥

जैम-अचारों वाले डिब्बे।
सब तुमसे काँपते हिडिम्बे॥१३॥

तुम फुरती से हाथ चलाओ।
बर्तन में विम बार जमाओ॥१४॥

आगे-आगे झाड़ू मारो।
बिस्तर के नीचे न बुहारो॥१५॥

दिवस दोय तक भीजैं कपड़े।
रङ्ग उड़ैं सब हलके-तगड़े॥१६॥

बखत-जरूरत दरस न होवै।
तुम्हरी उपमा तुम्ह सम होवै॥१७॥

मातु कृपा तव बड़ अवलम्बा।
तुम्हरा रोष छुड़ावै दम्भा॥१८॥

आसमान में उड़ता पाओ।
तुरत धरा पर वापस लाओ॥१९॥

नयी रेसिपी हमसे सीखो।
कालोनी में जाय उलीचो॥२०॥

घर-घर तुम्हरी होय बड़ाई।
अल्पकाल बिद्या बहु पाई॥२१॥

अस अमोघ तव नाम प्रतापा।
कॉपीराइट तुम्हें न ब्यापा॥२२॥

अगर सूचना कुछ पा जाओ।
तुरत प्रसारण भी करवाओ॥२३॥

लगी-बुझी में बहुत प्रवीणा।
बिना नाद की नारद-वीणा॥२४॥

सासों को तुम साँसें देती।
बहुओं के बहुदुख हर लेती॥२५॥

ननदों की तुम बहुत दुलारी।
पड़ोसनों की प्राण-पियारी॥२६॥

वेदों की शिक्षा अपनाती।
कालोनी को कुटुम बनाती॥२७॥

हनूमान-भैरुँ बुलवावैं।
नवकन्या के साथ जिमावैं॥२८॥

हौं दसदुर्गा रूप मनावौं।
दसवीं में सबहीं कौ पावौं॥२९॥

जुग-जुग में तुम्हरी प्रभुताई।
हरिगीता तुम्हरी स्तुति गाई॥३०॥

जमराजा के एक मुनीमा।
चित्रगुप्त का काम सनीमा॥३१॥

जीवनभर जो करम कमावैं।
पास पहुँचते उसे गिनावैं॥३२॥

तुम उनकी बड़की महतारी।
मेड-महारानी जग-ख्वारी॥३३॥

तुम्हरा मन जो रीझै-खीझै।
सुरग-नरक इहलोक बणीजै॥३४॥

चौदह भुवनों की ठकुरानी।
सदगुन-अवगुन-निरगुन-खानी॥३५॥

षोडशप्रहरणधारिणि मैया।
पूर्णाङ्का भवतारिणि मैया॥३६॥

नाम प्रात-स्मरणीय तिहारा।
तव प्रभाउ अग-जग बिस्तारा॥३७॥

मन-क्रम-बचन तिहारी सरना।
सद्गति का सुख जाय न बरना॥६८॥

मेड महामाई की गाथा।
जो गावै सो रहै सनाथा॥३९॥

घरभर का जीवन सुख सरसै।
मातु तिहारी किरपा बरसै॥४०॥

दोहा:

मेड तिहारी मूरती चित महुँ रखी सजाय।
हर महिने आराधना हो एडवांस चढ़ाय॥३॥

शुभङ्करी सुखदायिनी मेडेश्वरी समीप।
बैठ करौं पद-बन्दना फल अभिलाष प्रतीप॥४॥

*॥ इति श्रीचेतसऋषिकृतं श्रीमेडेश्वरीचालीसा सम्पूर्णम् ॥*

कीर्तन: जप लो मेड, जप लो मेड, जप लो मेड मेड मेड!

जयकारा: बोलो मेड-महादरबार की ... जय!!
______________________________________________

~ अर्यमन चेतस

पूर्वाह्न ११:३४, बृहस्पतिवार, ३१ अक्तूबर २०१९
भुवनेश्वर, ओडिशा

Sunday, January 07, 2018

बरसो!

यह गीत पाँच साल पहले तब की राजनीति से व्यथित हो लिखा था। आज अपनी ही पीढ़ी को स्वभाषाओं से दूर होते देखने के सन्दर्भ में याद हो आया ...

रे जलद! जलज प्यासा है
अभिषेक करो वसुधा का
हाँ, बरसो चौमासा है!

अर्धशती का यह अकाल क्या सबके प्राण हरेगा?
आज नियति झुठला कर यम दो बार कण्ठ धर लेगा!
इस आशावादी जग में
कैसी हताश आशा है!
यह क्लेश हरो दुविधा का
हाँ, बरसो चौमासा है!

उपवासों से देव न रिझते, सुऋचाएँ अपठित हैं
पूजा की पद्धतियाँ भी इस प्रदेश से प्रस्थित हैं
अब भविष्य का तो केवल
बस हविष्य से नाता है
सम्मान करो समिधा का
हाँ, बरसो चौमासा है!

कर्मयोग विस्मृत कर बैठी, जाति हमारी न्यारी
पाञ्चजन्य-उद्घोषक को कहती बस मुरलीधारी
"सम्पत्ति सुमति से बनती"-
मानस का कवि गाता है
उद्योग को सुविधा का
हाँ, बरसो ! चौमासा है

कवि आशावादी होता है, कुछ तो मैं भी हो लूँ
कवि-कर्तव्यों से अच्युत रह निज-विवेक-पट खोलूँ
कीचड़ में कमल खिलेगा
मन में यह अभिलाषा है
तुम कीच करो अभिधा का
हाँ, बरस ! चौमासा है

~चेतस
@जयपुर, २३ मार्च २०१३
#फैली हुई स्याही

Saturday, May 06, 2017

अपनापन

एक विपर्यय सा जीवन-क्रम! क्या होगा - जड़ या चेतन?
जैसा इसको मान चलें हम वैसा इसको गढ़ता मन

अपनी-अपनी धुन को गुनते धुन में रमना भूल गये
साँसों में अब भारीपन है, या फिर रहता खालीपन

मानस के शिखरों पर पिघली अन्तस् के वैराग्य लिए
एक नदी बूढ़ी हो आयी, खर्च हुआ सब यौवन-धन

प्राची और प्रतीची में ऐसा भी कोई भेद नहीं
दोनों की आभा सिन्दूरी, दोनों का निश्चिन्त गगन

मैं हूँ कोई देश नहीं, कोई न काल, कोई न बिम्ब
इतिहासों की थाह भी नहीं! हूँ मैं एक यही जीवन

Sunday, April 30, 2017

अपना-अपना नशा मुबारक

ज़हन-ज़हन में चमकने वाली ज़हीनतर कहकशाँ मुबारक
अपनी-अपनी तरह से सबको अपना-अपना नशा मुबारक

कहा इशारों में पत्थरों ने हुए मुख़ातिब जब आइनों से
तुम्हें है अपना गुमाँ मुबारक, हमें भी अपना मुकाँ मुबारक

जब उल्फ़तों की ख़ुशी मनाओ, रखो दिलों में न कोई शिकवा
कि जो मिला, जिस तरह मिला है, रहे सदा हमनवाँ मुबारक

किये तवारीख़ ने सितम गर, सितमगरों का हुकुम बजाया
वो मिट चुकी सारी हुक्मरानी, नयी पुरबिया हवा मुबारक

जो ज़िन्दगी के परे मिलेगा, क्यों फ़िक्र उसकी तुम्हें खपाये
है ख़ुश 'तख़ल्लुस', उसे हुए हैं यहीं पे दोनों जहाँ मुबारक
 
०२:४९ अपराह्न, १९ मार्च २०१७ | भुवनेश्वर, ओडिशा

प्रणय-गीत

शबनमी पात सा, सुरमई रात सा
तेरा आना हुआ अनकही बात सा

संदलों में महकती हुई ख़ुशबुएँ तेरे आने से मुझको भी महका गयीं
जो हवाएँ फ़िज़ाओं में बहती रहें, आ के हौले से मुझको भी सहला गयीं
तेरी पाकीज़गी मुझसे जो आ मिली, मेरा दामन हुआ बस तेरी ज़ात सा

रात है, चाँद है, एक एहसास है, ये गुज़रती हुई हर घड़ी ख़ास है
हमको दुनिया की परवाह क्यों हो भला, मैं तेरे पास हूँ, तू मेरे पास है
चाँदनी घुल चली है समाँ में, अहा! और मौसम हुआ साथ बरसात सा

एक लम्हा चला शाम से भोर तक यों हमारी कहानी सुनाता हुआ
ज्यों छिड़ा हो कहीं राग यौवन का ख़ुद अपनी लय-ताल को गुनगुनाता हुआ
तान भी उठ चली कुछ नज़ाकत लिए, फिर इबादत हुई, सुर लगा नात सा

रात बीती सुबह को सुहागन बनाकर, सजाकर सिंदूरी छटा भाल पर
छाँटकर सब अँधेरे उजाला हुआ आसमानों की सारी तहें पर कर
दुपहरी की तपिश भी सही जा रही, मुझको छूकर गया कुछ करामात सा

रंग जीवन के सारे समझ आ गये उन पलों में घटे जो महज़ कुछ घड़ी
संग तेरा मिला है तो खुल जायेगी दो जहाँ की सभी उलझनों की कड़ी
साथ में उम्र भर हम जियें ज़िन्दगी, प्रेम बढ़ता रहे सूत के कात सा

अप्रैल १६, २०१७

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