एक विपर्यय सा जीवन-क्रम! क्या होगा - जड़ या चेतन?
जैसा इसको मान चलें हम वैसा इसको गढ़ता मन
अपनी-अपनी धुन को गुनते धुन में रमना भूल गये
साँसों में अब भारीपन है, या फिर रहता खालीपन
मानस के शिखरों पर पिघली अन्तस् के वैराग्य लिए
एक नदी बूढ़ी हो आयी, खर्च हुआ सब यौवन-धन
प्राची और प्रतीची में ऐसा भी कोई भेद नहीं
दोनों की आभा सिन्दूरी, दोनों का निश्चिन्त गगन
मैं हूँ कोई देश नहीं, कोई न काल, कोई न बिम्ब
इतिहासों की थाह भी नहीं! हूँ मैं एक यही जीवन