Tuesday, November 05, 2019

गौरैया के दाने

आज मैं भोर से बैठा हूँ। आँख खुलने के साथ ही आज एक अजीब सी बेचैनी थी। सामने के नीम पर बैठी गौरैया की अठखेलियाँ भी आज रिझा न सकीं। बीते कुछ महीनों से सोचते-सोचते अब इस बेचैनी का असर मन के साथ शरीर पर भी होने लगा है। सोचते रहने का भार अधिक भारी होता है। मैं उन लोगों को देखता हूँ जो बड़े मस्तमौला होते हैं, हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाते जाने वाले देवानन्द जैसे। पहले देखता हूँ, फिर उन्हें भी सोचता ही हूँ। मैं ऐसे बहुत से देवनन्दों को जानता हूँ, देवानन्दियों को भी। अब तक के छोटे से जीवन में ऐसे न मालूम कितने छोटे, बड़े और समवयस्क लोग मिले हैं जो परिचय की नई-नई नम भूमि पर ही अपनत्व के साथ अपनी रामकहानी छींटने लगते हैं। उनका यह अपनत्व एक सहज अधिकार से भी भरा होता है। धीरे-धीरे मैं समझ रहा हूँ कि मेरी सोच अब केवल मेरी ही सोच नहीं रह गई है। इसमें बहुत लोगों के अनुभव घुले हुए हैं। गौरैया के भी, जो अभी-अभी शायद अपने बच्चों को देखने वापस नीम में कहीं अन्दर की तरफ़ चली गयी है। इस बात का भान होते ही अचानक मेरी पीड़ा बढ़ रही है। क्योंकि, यह अनुभवों को सोचने और सोचने के अनुभव बनाने ही से तो बनी है।

अनुभव तटस्थता का स्थायी भाव लिए किसी रस की तरह होते हैं। पीड़ा भी तो ऐसा ही उदासीन शब्द है। अनुकूल हो तो सुख, प्रतिकूल हो तो दुःख। सोचना भी कुछ ऐसा ही है। गौरैया भी ऐसी ही है। अपने परिवार के दाने-पानी की खोज में ही लगी रहती है। कहीं भी चुग लेती है। किसी भी पेड़ पर बैठ लेती है। अभी-अभी नीम से उड़कर बाईं तरफ़ वाले खेजड़ी पर चली गयी है। लेकिन हम मनुष्य गौरैया की तरह कबीरवाणी को नहीं जी पाते हैं। हम तो दोस्ती भी करते हैं, बैर भी। हम नेकियाँ भी करते है, गुनाह भी। तभी तो हम में कबीर जैसे कम ही हुए हैं। लेकिन गौरैया तो किसी भी दूसरी गौरैया ही की तरह है। तभी इसके पास सोचने को इतना कम है। मेरे जीवन में मिलने वाले ये सब देवानन्द और देवानन्दियाँ भी ऐसी ही किसी गौरैया की तरह हैं। थोड़े अलग भी हैं, क्योंकि मनुष्य तो हैं, सोचते हैं। लेकिन ये मुझसे अलग हैं। इन्हें फ़िक्र के बाद उसे धुएँ में उड़ाना आता है। मैं धुएँ का भी ग़ुबार अपने चारों ओर बनने देता हूँ। लेकिन, मैं सीख रहा हूँ। इस अनुभव से मैं समझने लगा हूँ कि ज़्यादा लोगों की फ़िक्र के लिए धुआँ बनने से कुछ बचना चाहिए। वरना हम स्वयं ही धुआँ होने लगते हैं और सोचते-सोचते भूल जाते हैं गौरैया के लिए इतनी गर्मी में पानी भी रखना था और ख़ुद भी नाश्ता करना था।

सूरज काफ़ी ऊपर चढ़ आया है। नाश्ते का तो समय नहीं रहा। गौरैया के लिए दूसरे कोने में साँगरी के नीचे पानी रख रहा हूँ और वह मुझे ऐसा करते हुए कुछ टेढ़ी होकर झाँक कर देख रही है। मेरे वापस मुड़ते-न-मुड़ते पास आकर फुदकने लगी है। मैं फिर से सोचता हूँ कि शायद यह मुस्कुरा रही है। कहते हैं, अज्ञान में सुख है। मुझे कभी-कभी लगता है, कम इन्द्रियों का भी सुख है। शारीरिक जटिलता के साथ ही मानसिक जटिलता भी स्वयमेव कम हो जाती है। अब गौरैया को कौनसी पढ़ाई या नौकरी करनी है! न ही इसे गाड़ी-बँगला चाहिए। पेट भर ही खाती है। चोंच भर ही उठाती है। न इसे अपनी बौद्धिकता किसी के सामने स्थापित करनी है, न ही अधिक कामनाएँ हैं। इसीलिए यह इतनी निर्लिप्त रह पाती होगी। शास्त्रों ने भी शायद इसलिए भी जितेन्द्रिय होने को इतना महिमामण्डित किया है। इन्द्रियाँ कम तो नहीं कर सकते, उन पर विजय तो प्राप्त कर ही सकते हैं। ऐसे नहीं तो वैसे सही। कान को हाथ घुमा कर पकड़ने वाली बात है।

कहाँ से कहाँ चला आया हूँ। बात से बात निकलती आई है और अचानक महसूस हो रहा है कि चैत की सुबह से सीधे जेठ की दुपहरी में चला आया हूँ। धूप की आँच इतनी है कि मेरा खाना भी तैयार हो गया है। बिजली विभाग की कृपा भी ऐसे समय में ही बरसती है। सो, आजकल मैं बरामदे में ही बैठकर खा लेता हूँ। गौरैया भी समय की बड़ी पाबन्द है। हर दिन ऐन इसी वक़्त फिर पास आ जाती है। अब तो अनाज खरीदने वाले दिन लद चुके। फिर भी इसके लिए थोड़ा रखना होता है। इसे बाजरा पसन्द है। यहीं बरामदे में एक ओर छोटे डिब्बे में भरकर रक्खा रहता है। मैं घर से बाहर भी रहूँ तो पड़ोसी समय पर इसको दाना-पानी देते रहते हैं। मेरे पेड़ों को पानी भी दे देते हैं। अब तो शहरों में ऐसे पड़ोसी मिलना भी सौभाग्य है। वैसे, मैं ख़ुशनसीब हूँ कि मुझे लोग अच्छे ही मिलते हैं। दो-चार दुष्ट भी टकरा जाते हैं कभी-कभी। लेकिन अच्छे लोगों की तादाद ज़्यादा होती है। मुझे लगता है कि यदि आपके पास अच्छे लोग हैं तो आप कभी भी कमनसीब नहीं हो सकते। मैं जब भी थोड़ा भी परेशान होता हूँ तो मेरे लोग सहायता के लिए होते हैं। इसके लिए ईश्वर का धन्यवाद करना चाहिए।

धन्यवाद गौरैया का भी करना चाहिए। यह मेरे साथ बड़ी स्पर्धा करती हुई सी चुगती है। जितनी देर में मैं खाता हूँ उतनी देर में यह अपने कुटुम्ब भर को खिला आती है और किसी विजेता की तरह अकड़कर मुँडेर पर बैठ जाती है। ख़ैर, खाना खाकर अब मैं लेटा हुआ हूँ। बिजली विभाग की कृपा अभी भी बरस रही है। इनवर्टर कमबख़्त भी सप्ताह भर से ख़राब ही पड़ा है। मैकेनिक को हर दिन फ़ोन कर बुलाया है मगर उसने स्वयं को सर्वोत्कृष्ट भारतीय नागरिक सिद्ध करने की ठानी हुई है। सो, मैंने बरामदे ही में खस के टाट लगा दिए हैं। इन पर पानी छिड़क देने से आराम रहता है। हाल ही में एक मित्र ने मेरी रुचियाँ देखते हुए "कारवाँ" तोहफ़े में दिया है। रेडियो जैसे डिब्बे में गीतमाला बज रही है। मैं गाने सुनते-सुनते सो गया हूँ। कभी-कभी तो लगने लगता है कि अमीन सयानी और गौरैया ही आवाज़ बदल-बदल कर सब गाते हैं। कितना अच्छा होता कि दुनिया में बस एक यह गौरैया होती और अमीन साहब होते। इसकी हर हरक़त पर उनके पास किसी गाने की प्यारी सी तरतीब होती। दोनों की चुहल भरी जुगलबन्दी चलती रहती।

मैं आनन्दित हो ही रहा हूँ कि गौरैया ने अपने सहेले-सहेलियों के साथ अपनी शाम की धमाचौकड़ी से मेरी नींद तोड़ दी है। मैं खीझ भरा तो उठा हूँ मगर आज शायद पुरवा बह रही है, सो बुझापन ख़ुद ही ग़ायब हो गया है। मेरे पेड़-पौधे खिले-खिले से दिख रहे हैं। पानी भरने का समय भी हो रहा है। पानी का नियमित संग्रह आवश्यक है। इस विषय में मैं स्वयं को गौरैया से बेहतर मान लेता हूँ। मेरे कभी भी ऐसा सोचने पर इसे पता चल जाता है और यह गर्दन फेर कर उड़ जाती है। अभी फिर उड़ गई है। मैं अकेले ही ठठाकर हँस रहा हूँ। साँझ ढलने को है। झुटपुटे में दाहिनी ओर कनेर और गुलमोहर की गोद में झिलमिलाते जुगनू ऊपर आसमान में चमकते हुए दूज के चाँद से ज़्यादा ख़ूबसूरत नज़ारा दे रहे हैं, मन में उल्लास भर रहे हैं कि चढ़ती रात के साथ जब मैं और सोचूँ तो बस सोचूँ ही नहीं, और जब नींद लूँ तब तो बिल्कुल भी सोचूँ ही नहीं।

रात होते-न-होते मैकेनिक आ गया है। इनवर्टर ठीक होते-न-होते बिजली विभाग ने कृपा बरसने के तरीक़े में भी सुधार कर लिया है। मैंने कुछ निर्णय कर लिए हैं। अब क्रियान्वयन का समय है। रात का खाना बाहर खाकर, चैन से सोकर उठा हूँ। नया दिन हो गया है। ताज़ा साँसे हैं। सोचना तो मेरी ताकत है, मेरी खुराक है। जारी रहेगा, मगर क्रियाशीलता के साथ। गौरैया की चहचहाहट भी आज नवेली है। 🙂

~ अर्यमन चेतस

०१ जून २०१९

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