कई दिनों बाद आज बैठे-बैठे ग़ज़ल हो गयी...अरसे बाद वियोग शृंगार लिखा गया..देखें ... :)
"कच्ची दुपहरियों में जामुन के नीचे
वह बाट जोहती घूँघट पट को खींचे
आँसू की खेती उग आती नयनों में
वह साँझ ढले गोधूलि-कणों को सींचे
चाँदनी रात में बाल पके हैं उसके
पर ड्योढ़ी की लौ अपनी चमक उलीचे
प्रिय की आहट पाने को आतुर होकर
मन-महल बिछाती हर दिन लाल गलीचे
हर रात मगर सूनी-सूनी कटती है
फिर भोर चली आई हथेलियाँ भींचे"
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०३:५२ अपराह्न, १८ मई २०१५
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, ४२ साल की क़ैद से रिहाई - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteसुंदर लफ़्ज़ों में सजी ग़ज़ल।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteमनमहल बिछाती लाल गलीचे,
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत । विरह की सुंदर अभिव्यक्ति।