बूझती कभी ख़ुद एक पहेली रहती है
माँ बैठे-बैठे रिश्ते बुनती रहती है
नज़रों को दौड़ा लेती है हर कोने में
माँ घर की सब दीवारें रँगती रहती है
जो भी हो थाह समन्दर की, उससे ज़्यादा
माँ गहरी, गहरी, गहरी, गहरी रहती है
धीरे-धीरे जैसे-जैसे मैं बढ़ता हूँ
माँ वैसे-वैसे ऊँची उठती रहती है
घर का सारा दायित्व लिए अपने सिर पर
माँ नभ में बादल बनकर तिरती रहती है
हाँ, बचपन की यादें बन कर भी कभी-कभी
माँ मेरी आँखों से भी बहती रहती है
मैं चाहे जिसमें खोज-खोज कर थक जाऊँ
माँ की उपमा तो केवल माँ ही रहती है
______________________________
0356 Hours, Thursday, July 31, 2014
माँ बैठे-बैठे रिश्ते बुनती रहती है
नज़रों को दौड़ा लेती है हर कोने में
माँ घर की सब दीवारें रँगती रहती है
जो भी हो थाह समन्दर की, उससे ज़्यादा
माँ गहरी, गहरी, गहरी, गहरी रहती है
धीरे-धीरे जैसे-जैसे मैं बढ़ता हूँ
माँ वैसे-वैसे ऊँची उठती रहती है
घर का सारा दायित्व लिए अपने सिर पर
माँ नभ में बादल बनकर तिरती रहती है
हाँ, बचपन की यादें बन कर भी कभी-कभी
माँ मेरी आँखों से भी बहती रहती है
मैं चाहे जिसमें खोज-खोज कर थक जाऊँ
माँ की उपमा तो केवल माँ ही रहती है
______________________________
0356 Hours, Thursday, July 31, 2014
हाँ, बचपन की यादें बन कर भी कभी-कभी
ReplyDeleteमाँ मेरी आँखों से भी बहती रहती है
मां की यादें आँखें भिगो गयी
भावमय कविता
आशीर्वाद़्
माँ का स्थान कोई नहीं ले सकता
ReplyDeleteमाँ की यादों में आँख डूब भिंगोती सुन्दर रचना