सुनने के, सुनाने के लिए कुछ भी न रहा
अब तुमको मनाने के लिए कुछ भी न रहा
यादों को तेरी, आँख से मैंने सुखा दिया
पलकों को भिगाने के लिए कुछ भी न रहा
बेनूर रहा घर मेरा इस साल दिवाली
कंदील सजाने के लिए कुछ भी न रहा
सब रंग न मालूम कहाँ खो गए, ऐ दिल!
तस्वीर बनाने के लिए कुछ भी न रहा
कागज़ पे आज बेहिसी ऐसी हुई तारी
स्याही को सुखाने के लिए कुछ भी न रहा
मय के सभी प्याले भी तो तुम तोड़ गयी हो
ग़म अपना भुलाने के लिए कुछ भी न रहा
शाइर हो 'तख़ल्लुस', ज़रा ईमान से रहो
मजबूर कहाने के लिए कुछ भी न रहा
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2334 Hours, Friday, July 11, 2014
very nice .
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