कुछ समय पूर्व फेसबुक पर इस प्रसंग को उठाया था। आज एक चर्चा के दौरान फिर एक वैसा ही अनुभव हुआ तो फेसबुक की उस सामग्री को यहाँ भी पोस्ट कर रहा हूँ।
हम अक्सर तब गलती कर बैठते हैं जब हम आस्था को केवल भक्ति से जोड़ते हैं। यहीं से मेधा बाधित होने लगती है। तुच्छ स्वार्थों की तुष्टि के निमित्त नूतन दूषित प्रमेयों का निगमन होने लगता है। आस्था तो ज्ञान के लिए भी सामान रूप से आवश्यक है। मनीषा पर भी उसका समान अधिकार है। फिर यह अनर्गल प्रवंचना क्यों? जन-सामान्य की निश्छल धार्मिक भावना का शोषण क्यों? क्या अपनी महत्ता स्थापित करने के लिए? या सामूहिक मनोवैज्ञानिक प्रयोगों में अपनी दक्षता सिद्ध करने के लिए? लेकिन, इन सबके साथ एक और प्रश्न अतीव महत्वपूर्ण है। सम्मानित व्यास-पीठ को गौरव-च्युत करने वालों का निजी आर्थिक लाभ की पूर्ति के अतिरिक्त और क्या उद्देश्य होता है? और वह जो भी होता है, हम लोग उसे समझ क्यों नहीं पाते हैं?
आस्था के नाम की माला जपते-जपते गीता के तार्किक ज्ञान को प्रदूषित करना, ग्रन्थों की प्रतीकात्मकता को विश्लेषित करते हुए न समझाना, इतिहास को उसके मौलिक स्वरूप में न निरूपित करना वर्तमान एवं भविष्य की पीढ़ियों के विरूद्ध निजी लोभ और लाभ के संरक्षण के हित में आजकल के अधिकतर तथाकथित धर्मोपदेष्टाओं का षड्यंत्र ही तो है। बस इनके जयकारे गूँजें, जनता मरती है तो मरा करे। ये "गुरु जी" कहलाते रहें।
कहा जाता है न - पहले गोरे अंग्रेज थे, अब काले अंग्रेज हैं। सही बात है। लेकिन ये काले भी दो प्रकार के हैं - एक तो सुपरिचित राजनैतिक और दूसरे स्वप्रचारित धार्मिक। कबीर की एक पंक्ति भिन्न सन्दर्भ के साथ यहाँ भी बैठाई जा सकती है - "इन दोउन राह न पायी"। एक पंचवर्षीय योजना बनाते हैं, दूसरे चातुर्मास की योजना बनाते हैं। रही-सही कसर हम स्तुतिवादी लोग अपने हाथ उठा कर या इन्हें साष्टांग प्रणाम करके बराबर कर देते हैं। यह केवल मेरा-आपका नहीं, सम्पूर्ण उपमहाद्वीप का रोग है और इलाज किसी ईश्वर के पास नहीं, हमारे पास ही है। लेकिन पहले यह तो पता लगे कि हम अपनी बुद्धि कहाँ गिरवी रखकर भूल गए हैं।
"राम" यदि बुद्धि-प्रदेश में रमण करने में अक्षम है, तो फिर वह राम ही कहाँ रहा? धर्म यदि बुद्धि को ही न धारण कर सके, उससे दूर भागे तो वह धर्म ही कैसे रहा? (यहाँ "राम" से तात्पर्य उसके शाब्दिक एवं पारिभाषिक अर्थ से है, न कि अवतारी पुरुष से। अतः इसी अर्थ में ग्रहण किया जाये।)
यह शास्त्रार्थों का देश रहा है। जो तर्क श्रेष्ठ हो उसी में आस्था स्थापित होती है। यही नियम है। आस्था से तर्क का प्रायोगिक निष्कासन उसे पंगु बना देता है। तर्क-विहीन आस्था बैसाखी तो बन सकती है किन्तु सुदृढ़ पाँव श्रेष्ठतम बैसाखी की अपेक्षा भी सदैव श्रेष्ठतर ही होते हैं।
"यद्धारयति तद्धर्मः" - सत्य है। किन्तु बुद्धिहीन समाज को कैसा धर्म धारण कर सकता है? क्या इसकी कल्पना मात्र मानस को झिंझोड़ने के लिए पर्याप्त नहीं है? सरल से तथ्य हैं। इन्हें भी समझना क्यों मुश्किल हुआ है??
आपकी यह रचना कल बुधवार (07
ReplyDelete-08-2013) को ब्लॉग प्रसारण : 78 पर लिंक की गई है कृपया पधारें.
सादर
सरिता भाटिया
लेकिन पहले यह तो पता लगे कि हम अपनी बुद्धि कहाँ गिरवी रखकर भूल गए हैं।
ReplyDeleteआस्था का सही अर्थ तो जाने ....उसकी व्यापकता को माने ....
बहुत सुंदर तथ्य पूर्ण चर्चा ....
शुभकामनायें आर्यमान ....!!