Thursday, July 31, 2014

माँ की उपमा तो केवल माँ ही रहती है

बूझती कभी ख़ुद एक पहेली रहती है
माँ बैठे-बैठे रिश्ते बुनती रहती है

नज़रों को दौड़ा लेती है हर कोने में
माँ घर की सब दीवारें रँगती रहती है

जो भी हो थाह समन्दर की, उससे ज़्यादा
माँ गहरी, गहरी, गहरी, गहरी रहती है

धीरे-धीरे जैसे-जैसे मैं बढ़ता हूँ
माँ वैसे-वैसे ऊँची उठती रहती है

घर का सारा दायित्व लिए अपने सिर पर
माँ नभ में बादल बनकर तिरती रहती है

हाँ, बचपन की यादें बन कर भी कभी-कभी
माँ मेरी आँखों से भी बहती रहती है

मैं चाहे जिसमें खोज-खोज कर थक जाऊँ
माँ की उपमा तो केवल माँ ही रहती है
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0356 Hours, Thursday, July 31, 2014

Saturday, July 12, 2014

कुछ भी न रहा..

सुनने के, सुनाने के लिए कुछ भी न रहा
अब तुमको मनाने के लिए कुछ भी न रहा

यादों को तेरी, आँख से मैंने सुखा दिया
पलकों को भिगाने के लिए कुछ भी न रहा

बेनूर रहा घर मेरा इस साल दिवाली
कंदील सजाने के लिए कुछ भी न रहा

सब रंग न मालूम कहाँ खो गए, ऐ दिल!
तस्वीर बनाने के लिए कुछ भी न रहा

कागज़ पे आज बेहिसी ऐसी हुई तारी
स्याही को सुखाने के लिए कुछ भी न रहा

मय के सभी प्याले भी तो तुम तोड़ गयी हो
ग़म अपना भुलाने के लिए कुछ भी न रहा

शाइर हो 'तख़ल्लुस', ज़रा ईमान से रहो
मजबूर कहाने के लिए कुछ भी न रहा
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2334 Hours, Friday, July 11, 2014

Tuesday, July 01, 2014

शब्द और भाषा (१)

अच्छी अंग्रेज़ी में लिखने पर लोग आपकी भाषा की तारीफ़ करते हैं, अच्छी हिन्दी में लिखने पर वही लोग कहते हैं कि लिखा तो अच्छा है लेकिन भाषा क्लिष्ट है। अपने अज्ञान का ठीकरा भाषा की शब्द-सम्पदा पर फोड़ने वालों को मुँह लगाने में कोई सार नहीं है। ऐसों से प्रभावित होकर अपना स्वाध्याय रोकना युक्तिसंगत नहीं।

अगर किसी को कोई विषय न आये तो उस व्यक्ति को या तो एक शिष्य की तरह उसे सीखना चाहिए या फिर उस विषय के जानकार की बात मान लेनी चाहिए। विषय ही को गरिया कर जिज्ञासु, चिन्तक या बुद्धिजीवी होने का तमगा लेने की होड़ एक अंधी दौड़ भर होती है, कहीं नहीं पहुँचाती। शब्दों को बलात् प्रचलन से बाहर कर उनकी हत्या करने के बाद भाषा को क्लिष्ट प्रचारित करने वालों को कमदिमागी और खरदिमागी से प्रेरित अपने घटिया कमीनेपन का और अपने ज़िन्दा होने का अधिक क्लेश होना चाहिए।

प्रत्येक विषय की अपनी पारिभाषिक शब्दावली होती है। ऐसे शब्दों का चलित भाषा में कोई समानार्थी होना आवश्यक नहीं और इसकी माँग करने वालों को एक सरल सा तथ्य समझ लेना चाहिए कि यदि उन्हें लोकभाषा में समानार्थी शब्द उपलब्ध करवा भी दिए जाएँ तो उन्हीं को न पचेगा क्योंकि वस्तुतः उन्हें लोकभाषा से प्रेम नहीं है। उनकी अपच इस मुद्दे से है कि चलित भाषा में क्यों कोई नया शब्द जुड़ जाये। इन कुतर्कियों का हाजमा ऐसा ही होता है, आदत के मारे हैं।

अगर हमें "माइटोकॉण्ड्रिया" के बारे में बात करनी है तो इस शब्द को बोलना ही पड़ेगा। अब निकाल लेंगे लोकभाषा में एक अलग शब्द या इसे ही स्वीकार करेंगे? इसी तरह जब दार्शनिक विषय पर बात होगी तो उसकी अपनी शब्दावली का ही प्रयोग किया जायेगा। विषय को अपने स्तर तक नहीं खींचा जाता, स्वयं उसके स्तर तक उठाना पड़ता है।

यह एक अत्यन्त अश्लील कुतर्क है कि "अमुक विषय आमजन के लिए नहीं है क्या?" या "अमुक विषय केवल इसके पण्डितों के लिए है क्या?" इससे तो आमजन सदा आम ही बना रहे। उसका सारा अध्यवसाय ही रुक जाए, प्रगति रुक जाए। यह केवल दिमाग को मन्द और कुन्द करने के लिए है। जो विषय का पण्डित होता है, वह भी कभी पहली बार सीखता ही है। यह बात जितनी गणित, भौतिकी, रासायनिकी, अर्थशास्त्र जैसे विषयों पर लागू होती है, उतनी ही इतिहास, साहित्य, दर्शन जैसे विषयों पर भी होती है।

(जारी...)
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