Sunday, January 07, 2018

बरसो!

यह गीत पाँच साल पहले तब की राजनीति से व्यथित हो लिखा था। आज अपनी ही पीढ़ी को स्वभाषाओं से दूर होते देखने के सन्दर्भ में याद हो आया ...

रे जलद! जलज प्यासा है
अभिषेक करो वसुधा का
हाँ, बरसो चौमासा है!

अर्धशती का यह अकाल क्या सबके प्राण हरेगा?
आज नियति झुठला कर यम दो बार कण्ठ धर लेगा!
इस आशावादी जग में
कैसी हताश आशा है!
यह क्लेश हरो दुविधा का
हाँ, बरसो चौमासा है!

उपवासों से देव न रिझते, सुऋचाएँ अपठित हैं
पूजा की पद्धतियाँ भी इस प्रदेश से प्रस्थित हैं
अब भविष्य का तो केवल
बस हविष्य से नाता है
सम्मान करो समिधा का
हाँ, बरसो चौमासा है!

कर्मयोग विस्मृत कर बैठी, जाति हमारी न्यारी
पाञ्चजन्य-उद्घोषक को कहती बस मुरलीधारी
"सम्पत्ति सुमति से बनती"-
मानस का कवि गाता है
उद्योग को सुविधा का
हाँ, बरसो ! चौमासा है

कवि आशावादी होता है, कुछ तो मैं भी हो लूँ
कवि-कर्तव्यों से अच्युत रह निज-विवेक-पट खोलूँ
कीचड़ में कमल खिलेगा
मन में यह अभिलाषा है
तुम कीच करो अभिधा का
हाँ, बरस ! चौमासा है

~चेतस
@जयपुर, २३ मार्च २०१३
#फैली हुई स्याही

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...