Tuesday, February 17, 2015

मधुमास ...एक प्रणय-निवेदन

लो यह आया मधुमास प्रिये!
कुछ मैं बोलूँ, कुछ तुम बोलो
वनचारिणि हरिणी के जैसे
सुन्दर नयनों के पट खोलो

बस, आज ज़रा जी भर करके
कुछ मैं देखूँ, कुछ तुम देखो
प्रिये! गुलाबी पंखुडियों
जैसे होठों से कुछ बोलो

अब तलक तुम्हारी कोकिल-सी
बोली को मैं न सुन पाया
शब्दों के प्यासे कानों में
थोड़ा-सा तो अमृत घोलो

प्रियतमे! तुम्हारे संग जैसा
कुछ नहीं मुझे प्यारा जग में
कुछ देर ज़रा मेरे सीने
पर सिर अपना रखकर सो लो

जब तुम अँगड़ाई लेती हो
मन मचल-मचल-सा जाता है
कर लो अब मेरा आलिंगन
अब और नहीं मुझको तोलो

तुम अपनी केश-लहरियोंमें
मेरे हाथों की नौका को
इक बार डूबने का अवसर
दे तुष्ट स्वयं में भी हो लो

सुन्दरी! तुम्हारी आभा लख
मन विचलित-सा हो जाता है
मधुपान आज मैं भी कर लूँ
तुम भी भावों को फिर धो लो

मैं नहीं प्रिये! उस भ्रमर-सदृश
जो रूप रहे मंडराऊँगा
मैं बीच अधर में छोड़ूँगा
-ऐसी शंका में मत डोलो

ये अति-कोमल तेरे कपोल
क्यों, हाय! शर्म से लाल हुए?
अब तजो लाज का यह पर्दा
बोलो, बोलो, जल्दी बोलो

मेरे ही बोले-बोले में
मधुमास कहीं न कट जाए
मुस्कान निरख यह श्रमहारी
अब मैं चुप हूँ, अब तुम बोलो
... ... ... ... ...
_________________________________
वसन्त पञ्चमी, 2008, कोटा (राजस्थान)

7 comments:

  1. waqayi aap : " Ek diwas Chha jayenge..... :) "

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    Replies
    1. जी बहुत शुक्रिया...स्नेह बनाये रखें.. :)

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  2. सुन्दर प्रस्तुति !
    आज आपके ब्लॉग पर आकर काफी अच्छा लगा अप्पकी रचनाओ को पढ़कर , और एक अच्छे ब्लॉग फॉलो करने का अवसर मिला !


    कभी फुर्सत मिले तो ….शब्दों की मुस्कराहट पर आपका स्वागत है

    ReplyDelete
    Replies
    1. पढ़ने के लिए बहुत धन्यवाद संजय जी..मैं अभी ही आ जाता हूँ ... :)

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  3. मधुमास एक प्रणय निवेदन'' बहुत ही शानदार रचना।

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    Replies
    1. समय देने के लिए आपका बहुत आभार कहकशाँ जी.. :)

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आपके विचार ……

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