ग़रीबों की जो बस्ती है, उसी में, हाँ, उसी में ही
ज़माना पोंछता है आस्तीनें, हाँ, उसी में ही
सितमगर को सितम ढाने में कुछ ऐसा मज़ा आया
कि आकर फिर खड़ा मेरी गली में, हाँ, उसी में ही
है कुदरत की अजब नेमत, लुटाने से ही बढ़ती है
कि सब दौलत छिपी है इक हँसी में, हाँ, उसी में ही
वो है अच्छी मगर डर है उसे ऊँची इमारत का
शराफ़त है सिमटती बेबसी में, हाँ, उसी में ही
तुम्हारा सोचना मुझको बड़ा माकूल लगता है-
'तख़ल्लुस' लिख रहा है ख़ुदकुशी में, हाँ, उसी में ही
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0602 Hours, Friday, August 22, 2014
ज़माना पोंछता है आस्तीनें, हाँ, उसी में ही
सितमगर को सितम ढाने में कुछ ऐसा मज़ा आया
कि आकर फिर खड़ा मेरी गली में, हाँ, उसी में ही
है कुदरत की अजब नेमत, लुटाने से ही बढ़ती है
कि सब दौलत छिपी है इक हँसी में, हाँ, उसी में ही
वो है अच्छी मगर डर है उसे ऊँची इमारत का
शराफ़त है सिमटती बेबसी में, हाँ, उसी में ही
तुम्हारा सोचना मुझको बड़ा माकूल लगता है-
'तख़ल्लुस' लिख रहा है ख़ुदकुशी में, हाँ, उसी में ही
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