Sunday, June 26, 2011

कुछ है


..अब इस बार कुछ थोड़ा सा अलग...


न सुनने को कुछ है, न कहने को कुछ है
न तो आज दिल के बहकने को कुछ है

मेरी आरज़ू की बुलन्दी की खातिर
न दरिया मेँ कुछ है, न सहरा मेँ कुछ है

बताए ज़रा चाँद को भी तो कोई
न उसकी चमक मेँ दहकने को कुछ है

सूरज से कह दो मशालेँ जला ले
अभी और उसमेँ न जलने को कुछ है

गलतफ़हमियोँ मेँ है फूलोँ की बस्ती
कि हर पल वहाँ पर महकने को कुछ है

कँटीली सड़क पर ज़रा चल के देखो
तो मालूम होगा लहकने को कुछ है

बच्चे की किलकारियोँ की तरह से
अभी ज़िन्दगी मेँ कहकने को कुछ है

वो चिड़ियोँ के जैसे अभी घोँसलोँ मेँ
नयी भोर है तो चहकने को कुछ है

Saturday, June 25, 2011

सह-जीविता

स्वकीयता और परकीयता -
पारस्परिक वैलोम्य में अवगुण्ठित दो भाव,
एक-दूसरे की वैयक्तिकता की गरिमा का
सम्मान करते हुए,
अपनी शुचिता की मर्यादा में रहते हुए...
सर्वथा विपरीत,
किन्तु..एक-दूसरे के चिर-पूरक...
सदैव एकाकी,
किन्तु..स्वयमेव परिपूर्ण...
एक-दूसरे की विरोधी उपस्थिति के सत्य से अभिज्ञ,
किन्तु..आत्म-संतुष्ट...
एक-दूसरे के परिमाण द्वारा निर्णीत,
किन्तु..व्यापक...
बाँटते हुए एक सुखद अनुभव,
सह-जीविता का..!!

आओ सीखें...

Tuesday, June 21, 2011

यात्रा...


जीवन क्या है...???
एक निस्सार यात्रा,
जिससे अधिक सारगर्भित कुछ भी नहीं.
निस्संदेह, 
हम जीते हैं--
एक चिर-विचारशील अवस्था में
जहां सभी बंधन
बंधहीन हो जाते हैं;
एक चिरंतन, शाश्वत तत्व का साक्षात्कार होता है,
प्रतिपल,
किन्तु
कोई अनजाना-सा गुबार
जैसे मानस को ढक लेता है
और....
आँखें बाध्य हो जाती हैं
आगे न देख सकने के लिए;
फिर..?
इस बाध्यता की पराकाष्ठा....
उस बिंदु पर
जहां अपरिमित अन्तर्निहित है,
जहां वे सब कुछ देखने को स्वतन्त्र हैं..
कैसा अजीब विरोधाभास...!!
किन्तु सत्य....!!!

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